प्रभु श्रीराम के पद चिन्ह

 अभी कुछ दिनों पहले भगवान श्रीराम का जन्मदिन "रामनवमी" गया। रामायण में जो अलग अलग प्रसंग वर्णित हैं, उससे साबित हो चुका हैं कि जो लोग इस महाग्रंथ को केवल "एक दंतकथा" बोलते हैं, वो महामूर्ख हैं। भगवान राम, भगवान हनुमान, लक्ष्मण, सीता मैया, भरत, दशरथ राजा, रावण - ये सब पात्र किसी कालखंड में इस धरती पर अवतरित हुवे थे, और आप एवं मेरी तरह एक मनुष्य का जीवन जी रहे थे। श्रीलंका में पाया गया हनुमान जी का विशाल पदचिन्ह, नेपाल में जनकपुरी में सीताजी की जन्मस्थली, भारत और श्रीलंका के बीच स्थित रामसेतु, श्रीलंका में स्थित अशोक वाटिका और रावण के विशाल महल के पर्वत पर मिले हुवे अवशेष - ऐसे कई चिन्ह हैं जो कि प्रमाणित करते हैं कि रामायण में जो भी महर्षि वाल्मीकि और फिर तुलसीदास जी ने लिखा हैं, वो असल में इस धरा-तल पर सच में घटित हुवा था। 


विज्ञान से ज्यादा सचोट और कोई हथियार नहीं हैं, मानवजात के पास जिससे किसी भी चीज़ की असलियत को मूल रूप से परखा न जा सके। तो आइए देखें  विज्ञान क्या कहता हैं "रामायण" के बारे में:- (१) जो रामसेतु भारत और श्रीलंका के बीच स्थित हैं, उसकी satellite imagery (सेटेलाइट तस्वीरें) के पृथकरण से ये साबित हो चुका हैं कि ये सेतु (bridge) पानी में तैर सके ऐसे छिद्रों वाले पत्थरों से बना हुवा सेतु हैं। यह बात इस बात का पुष्टिकरण करती हैं कि रामायण में सपष्ट रूपसे लिखा हैं कि सभी वानर जो कि प्रभु श्रीराम के परम भक्त थे उन्होंने पत्थर के ऊपर राम लिख कर जैसे ही उन्हें पानी मे डाला, वह तैरने लग गया। ऐसे हज़ारों पत्थरों को समेट कर एक विशाल सेतु बनाया गया जो कि भारत वर्ष के दक्षिणी भाग को श्रीलंका के उत्तरी भाग से जोड़ने में सफल हो गया। (२) महर्षि वाल्मीकि ने रामजी के जन्म के समय के अवकाशिय नक्षत्र, तारों और ग्रहों का जो विस्तृत वर्णन रामायण में लिखा हैं, उसका Detailed Spectrographical Analysis of the astronomy at a particular time in history (इतिहास के किसी एक निश्चित समय का विस्तृत स्पेक्ट्रोग्राफिकेल विवरण) करवाया गया तो उसमें से भगवान श्रीराम के जन्मदिन का निश्चित दिवस उभर कर सामने आ गया (Exact BirthDate of Lord ShreeRam!) ये दिन था १० जनवरी, ५११४ ई.पूर्व (10th January, 5114 BC)!! इस हिसाब से अभीअभी जो रामनवमी गई, वह रामजी का ७१३०वा जन्म दिवस था (7130th Birthday of Lord Rama!) उसके पहले पिछले साल जो जन्माष्ठमी गई वह शायद भगवान श्रीकृष्ण का 3163वा जन्म दिन था। अगर 7130 में से 3163 को निकाला जाए तो संख्या आती हैं 3967. यानि की रामजी किशन जी से 3967 वर्ष बड़े थे या फिर किशन जी का जो त्रेता युग है, वह राम जी के द्वापर युग के करीब 4000 साल बाद इस धरती पर घटित हुवा।


इसके उपरांत विज्ञान की मदद से रामजी के जीवन से जुड़े बहुत से अन्य पहलू का भी detailed examination (विस्तृत परीक्षण) कई ऐतिहासिक संस्थान कर रही हैं। 14 वर्ष के वनवास के दरम्यान राम जिन जिन जगहों से गुज़रें थे वहां की एक एक ऐसी चीज़ जो कि उनके अस्तित्व को साबित कर के हमारे सामने ला खड़ा कर देती हैं, उनका  detailed study (विस्तृत अभ्यास) सम्पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से, सभी तथ्यों को बराबर जांच कर किया जा रहा हैं। ये कार्य सिर्फ आवश्यक ही नहीं बल्कि सराहनीय हैं। 


14 वर्ष के वनवास की सजा को भुगतने के लिए श्रीराम 25 वर्ष की आयु में 5089 ईसा.पूर्व को अयोध्या से एक अमावस्या की रात को निकले थे। सबसे पहले वो चलते हुवे सरयू नदी तक पहुंचे थे। वहां पर उस नाविक ने उनका पद-प्रक्षालन किया था (पांव धोये थे)। सरयू को पार कर के श्रीराम प्रयागराज (जिसका मुसलमानों ने जबरदस्ती नाम बदल के इलाहाबाद कर दिया था, मुग़ल शासन के दौरान) वहां पहुंचे थे । फिर वहां से प्रभु चित्रकूट-धाम पहुंचे थे। वहां पर उन्होंने उन दैत्यों का संहार किया था जो कि ऋषियों और ब्राह्मणों के यज्ञों में मांस डाल कर उनको अपवित्र करने पर तुले हुवे थे। माना जाता हैं कि यही पर प्रभु कई साल रुक गए थे (शायद 12 साल) और यहीं पर उनका और उनके अनुज भरत का मिलन हुवा था। जब रावण सीताजी का हरण करने के लिए आया तब ये दैविक जोड़ा यही पर रहता था। वर्ष था 5077 ईसा.पूर्व। रावण  ब्राह्मण वेश में आ कर सीताजी को लक्ष्मण-रेखा को लांघने पर मजबूर करके निर्दयता पूर्वक उठा ले जाता हैं, वो घटना भी यहीं की हैं।


सीताजी का अपहरण हो जाने के बाद रामजी एक दैविक शक्ति स्वरूप होने के पश्चात भी किस बुरी तरह से कई दिनों तक हताश और उदास हो गए थे, वो सब चित्रकूट में ही हुवा था। उसके बाद लक्ष्मण जी उनको एक जबरदस्त मानसिक सहारा दे कर, जटायु पक्षी से सारी बातें सुनने के बाद, रावण से युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। अपने चित्रकूट के निवास को अंतिम प्रणाम कर के दोनों सूर्यवंशी क्षत्रिय, यहाँ से पैदल निकल कर पहले सतना पहुंचते हैं और फिर वहां से रामटेक। ये दोनों जगह वर्तमान

प्रभु श्री राम के पद-चिन्ह: (भाग 2) (आगे) 

चित्रकूट धाम से निकल कर राम और लक्ष्मण, ये दोनों सूर्यवंशी क्षत्रिय बंधु, पहले सतना पहुंचते हैं फिर वहां से रामटेक। ये दोनों जगह आज के मध्यप्रदेश राज्य में स्थित हैं। रामटेक में कुछ दिन रह कर प्रभु पहुंचते हैं पंचवटी, फिर वहा से भण्डारदारा और तुलजापुर। ये तीनों जगह आजके महाराष्ट्र राज्य में स्थित हैं। उसके बाद पहुंचते हैं सुरेबान, करदीगुड़, कोप्पल और फिर हम्पी। ये चारों आज के कर्नाटक राज्य में हैं। वहाँ से तमिलनाडू राज्य के तिरुचिरापल्ली, कोदिक्करै, रामनाथपुरम और फिर रामेश्वरम। रामेश्वरम में वह भांप लेते हैं कि रावण की लंका अब दूर नहीं हैं। युद्ध की तैयारियां शुरू हो जाती हैं और रामजी सर्वप्रथम कार्य शिव-स्तुति का करते हैं, समुद्र-तट पर शिवलिंग बना कर, जो कि आज एक ज्योतिर्लिंग हैं और जग-प्रसिद्ध धार्मिक स्थल हैं। 


अब समस्या खड़ी होती हैं कि बीच में आये इस समुद्र को कैसे पार किया जाए। हनुमान जी इसका सुजाव बाकी के वानरों को देते हैं कि अगर पत्थरों के ऊपर "राम" लिख कर समुद्र के पानी में डालोगे तो वह डूबेंगे नहीं पर तैरने लगेंगे। ये बात सच साबित होती हैं। हरेक पत्थर जिसके ऊपर कोई भी "राम" लिखता हैं वो तैरने लगता हैं!! पूरी की पूरी सेना का मनोबल इससे अनेक गुना बढ़ जाता हैं। फिर क्या, देखते ही देखते एक विशाल सेतु तैयार हो जाता हैं जो कि भारतवर्ष के दक्षिणी छोड़ को श्रीलंका के उत्तरीय छोड़ से मिला देता हैं। हज़ारों वानरों वाली रामजी की सेना, राम, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव समेत इस प्रकार लंका में प्रविष्ठ हो जाती हैं। 


श्रीलंका में ये सबसे पहले वासगामुवा पहुंचते हैं। वहां से वनथेरुमूला हो के उस देश के दक्षिण-मध्य में स्थित दुनुविला पहुंचते हैं, जहां पर एक विशाल पर्वत के ऊपर रावण का महल होता हैं। 


युद्ध शुरू होने से पहले रामजी, जब उन्होंने रामसेतु को पार नहीं किया था उस समय रावण को अंतिम चेतावनी देने के लिए हनुमानजी को रावण के सोने के महल में भेजते हैं। हनुमानजी रावण को अत्यंत कड़क शब्दों में बता देते हैं कि वो तुरंत ही सीताजी, जो कि उसके अशोक वन में राक्षसियों के बीच कैद थी, उन्हें वो छोड़ दे। अगर ऐसा नहीं किया तो वो, उसका पूरा परिवार और उसकी पूरी सोने की लंका जल कर अग्नि में खाख हो जाएगी। विभीषण, रावण का छोटा भाई, उन्हें हनुमानजी की ये बात मान लेने को और सीता जी को तुरंत छोड़ देने को समज़ाता हैं। "विनाश कालेन विपरीत बुद्धि:।"  - यानी जब विनाश काल नजदीक हो तो बुद्धि विपरीत हो जाती हैं, भ्रष्ठ हो जाती हैं। रावण के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित होता है। उस दैत्य की बुद्धि नष्ट हो जाती हैं और अपनी शक्तियों के गर्व के नशे में चूर वह उल्टा हनुमान को बंदी बनाने की आज्ञा देता हैं। विभीषण को भरी सभा में मुंह के ऊपर लात मार के, "कायर और राजद्रोही" विशेषण से संबोधित कर के भगा देता हैं। 


इस दरम्यान हनुमान जी अपने विराट स्वरूप में आ जाते हैं। सभी राक्षसों की धुलाई करके वहां से उड़ जाते हैं। राक्षसों ने उनकी पूंछ के ऊपर जो आग लगाई थी उनका नुकसान उन्हीं को उठाना पड़ता हैं क्योंकि ये ताकतवर बंदर रावण की सोने की लंका में जबरदस्त आग लगा देता हैं। दूसरे दिन से रावण की सेना और प्रभु राम की सेना के दरमियान युद्ध प्रारम्भ हो जाता हैं। एक के बाद एक रावण के सभी निकटतम लोग - उनके दोनों छोटे भाई मेघनाद और कुंभकर्ण सहित मारे जाते हैं। युद्ध के चौदहवें दिन रावण स्वयं अट्ट-हास्य करता हुवा, अभिमान के नशे में चूर युद्ध भूमि में आ पहुंचता हैं। भगवान श्रीराम के साथ उसका भीषण युद्ध होता हैं। जब राम का एक तीर उसकी नाभि में जा के लगता हैं तो ये दशानन वहीं पर ढेर हो जाता हैं, मूर्छित होने से पहले राम का नाम लेता हैं, प्रभु को मुख से प्रणाम बोल कर मूर्छित हो जाता हैं। कुछ क्षण के पश्चात मर जाता हैं। 


रावण की मौत के पश्चात रामजी, सीता से मिलने अशोकवाटिका पहुंच जाते हैं। वहाँ पर इन दोनों सच्चे प्रेमियों का मधुर मिलन होता हैं। आकाश में से पुष्प वर्षा होती हैं, क्योंकि सारे देव-देवता भी इस पावन जोड़े के मिलने से अत्यंत प्रसन्न हैं। रावण को जिस दिन राम मार देते हैं वह दिन  सनातन धर्म के लोग, उस दिन से उसे "दसहरा" के रूप में मनाते हैं। फिर तो क्या? सीतामैया, लक्ष्मण को ले कर प्रभु राम देवों द्वारा खास उनके परिवहन के लिए भेजे हुवे पुष्कर विमान में बैठ जाते हैं। उड़ कर वह सीधे अयोध्या पहुंचते हैं। वहां पर उनकी जयजयकार होती हैं। 


रावण की मौत के ठीक 20 दिनों के बाद, भगवान श्रीराम का सम्पूर्ण सम्मान के साथ, अयोध्या-नरेश के रूप में राज्याभिषेक होता हैं। आकाश में से फिरसे सभी देवी देवता जोरदार पुष्प वृष्टि करते हैं। यह दिन मित्रों होता हैं इस.पूर्व 5075 के वर्ष का, जब भगवान की आयु 39 वर्ष की थी। सनातन धर्मी इसे दीपावली के रूप में तब से मना रहे हैं।

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