दुश्मनों की छाँवनी में कम से कम ८० जवान होने का अंदाज़ा ब्रिगेडियर ने लगाया। एक ऊंची और लंबी पहाड़ी क़े ऊपर वो सब चढ़ गए थे। ब्रिगेडियर जानता था कि अगर इस अंतिम लक्ष्य को पार कर लिया तो भारतीय दल की जीत निश्चित थी। मगर इस वख्त तो ये काम लोहे के चने चबाने जैसा बेहद मुश्किल लग रहा था। वह इसलिए क्योंकि फिलहाल भारतिय दल के केवल २२ सैनिक शेष बचे थे। शाम के चार बजे से लेकर अब तक लगातार, वे सब कार्यरत थे। २५ फौजियों को लेकर जब वो भारतिय छावनी से निकले थे, तब ये खयाल किसी को भी नहीं था कि अंतिम लक्ष्य तक जब वे पहुंचेंगे, तब तक ३ जवान शहीद हो चुके होंगे और बाकी के इतने थक चुके होंगे की उस पहाड़ी पर चढ़ कर दुश्मनों को मार गिराने की शारीरिक ताकत और हिम्मत किसी में बची नहीं होंगी। लेकिन अब पीछे हटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। क्योंकि अगर पीछे हट कर वापिस अपनी छाँवनी में गए, तो ये जो दुश्मन के सैनिक एक साथ इकट्ठे हुवे थे उनको एक साथ मार गिराने का और पहाड़ी पे कब्ज़ा ज़माने का स्वर्णिम अवसर आगे जा के पता नहीं मिले न मिले।इसलिए अब ये "आर या पार की लड़ाई" हो चुकी थी। मार डालो या मर जाओ - बस ये दो ही विकल्प बाकी बचे थे। फिर भी ब्रिगेडियर ने सोचा कि आखिरी निर्णय लेने से पूर्व, चलो एक बार सब से पूछ लिया जाए कि उनकी व्यक्तिगत राय क्या हैं।
सारे भारतिय फ़ौजी पहाड़ी के पश्चिमी छोर की लम्बी-सी ढलान पर, जहा से रोज़ डूबता हुवा सूरज साफ दिखाई देता है, वहां पे अपनी अपनी टांगो को फैला कर, उस पथरीली और कांटो से भरी पहाड़ी पर उल्टा लेटे हुवे थे। सब के हाथों में मशीन-गन थी, जब की कुछ के पास जेब में बम भी थे। वो पहाड़ी करीब १०० मीटर ऊंची थी (अंदाजित ऊंचाई ३० मंझिला इमारत जितनी)। अब तक वो सब २० मीटर की चढान चढ़ चुके थे जो की उतनी मुश्किल नहीं थी। पर आगे जा के ये चढ़ान ज्यादा सीधी और कठिन होती दिखाई दे रही थी। दुश्मनों की छाँवनी जो के पहाड़ी के ठीक ऊपर थी, वो अभी काफी दूर थी, इसलिए थोड़ी बहोत बातें अगर की जाए, तो ऊपर तक इस की आवाज़ पहुंचने की संभावना बिल्कुल नहीं के बराबर थी। इसलिए ब्रिगेडियर थोड़े ऊँचे सूर में बोला, "भारत माता की जय.. ध्यान से सुनो... आप सब में से ऐसे कितने हो, जो की दुश्मन पर विजय हांसिल करने का काम कल पर छोड़ना चाहते हैं? ऐसे जवान अपना हाथ ज़रा ऊपर उठाये...।"
ये सुनते ही ब्रिगेडियर के आलावा बाकी के २१ में से १९ फौजियों ने अपना एक हाथ ऊपर उठाया। मगर मेजर विक्रम राठोड और सूबेदार अर्जुनसिंह ने अपना हाथ नहीं उठाया। ये देख कर सूबेदार वीरप्रताप सिंह ने उन दोनों को सम्बोधित कर के कहा, "अरे मेजर साब और अर्जुनसिंह, तुम दोनों अपनी मूर्खता का प्रदर्शन मत करो। तुम क्या सोचते हो, इतने थके हुवे होने के बावजूद हम इतना ऊपर चढ़ सकते हैं क्या? और ऊपर कोई हमारे ससुराल वाले हमे दावत में बुला कर हमारा भव्य स्वागत करने की राह देख कर नहीं बैठे हुवे है, समजे... वहा तैनात होंगे हमारे दुश्मन, दर्ज़नों की तादाद में। हमें देखते ही वो लोग गोलियां बरसाना शुरू कर देंगे हम पर। एक तो इतनी थकान और ऊपर से वहां पहुँच कर युद्ध - ये बिलकुल ही असंभव कार्य हैं। इसलिए अपनी वीरता यहाँ पे मत दिखाओ और अपना हाथ ऊँचा कर दो।" इतना सुनते ही सूबेदार अर्जुनसिंह ने अपना हाथ ऊँचा कर दिया। अब सिर्फ एक आदमी था, जिसने की अभी तक संजोग से, मुश्किलों से हार मारने से इनकार कर दिया था मानो। वो था मेजर विक्रम। ब्रिगेडियर को अब यूँ लगने लगा था की इन २० सैनकों की बात मान कर, वापिस भारत की छाँवनी में चले जाना बेहतर होगा। उन्होंने एक गहराई से भरी हुई सांस ली और बोले, "मुझे लगता हैं कि ये सारे ठीक बोल रहे हैं। चलो नीचे उतरो सब। इन पर कल धावा बोल देंगे। चलो सारे नीचे।" इतना बोल कर जैसे ब्रिगेडियर नीचे उतरने लगा, तुरंत मेजर विक्रम ने आवाज़ लगाई, "ब्रिगेडियर साहब.., आप लोग जाओ, कोई बात नहीं.. पर मैं तो हमला करूँगा, आज ही, अभी ही। चाहे उस हमले से एक दुश्मन की मौत हो चाहे दस की, मैं तो अब पीछे नहीं हटने वाला इधर से।" ये सुनकर ब्रिगेडियर चौंक उठा। "What? Are you denying the orders of a senior? क्या तुम एक ऊपरी अधिकारी की बात को मानने से इन्कार कर रहे हो? वो भी जंग के मैदान में? इसका अंजाम जानते हो? कोर्ट मार्शल हो जाएगा तुम्हारा"- ब्रिगेडियर चिल्लाया। मेजर विक्रम जो की अब तक नीचे उलटा लेटा पड़ा था अब एकदम खड़ा हो गया और विनम्रता के सूर में बोला - " साब मैं आप के हुकुम से इंकार नहीं कर रहा। सिर्फ समजा रहा हूँ। याद किजिये अभी एक घंटे पहले आप को क्या मेसेज आया था? कि आज ऊपर एक पार्टी चल रही हैं, वहां पे... सारे दुश्मन वहां पे सेलिब्रेट कर रहे हैं, जश्न मना रहे हैं .... क्या इससे अच्छा मौका मिलने वाला हैं हम लोगों को, उन पर हमला करने का?? और शायद मिल भी जाये तो कई दिनों के इंतजार के बाद... तब तक मालूम नहीं हम में से कितने यहाँ बचे होंगे... मुट्ठीभर? इस वख्त एक जबरदस्त मौका हैं, उन पर धावा बोल देने का, उनको ऐसे हालत में मारने का, ठीक उसी तरह से जैसे उन्होंने हमारे उन्नीस सोते हुवे जवानों के ऊपर गोलियां चला कर उन्हें शहीद कर दिया था पिछले महीने..."
ब्रिगेडियर ने जवाब दिया - "देखो मेजर, मैं तुम्हारे जझबातोँ को समज सकता हूँ.. पर ये वख्त जझबाती होने का नहीं बल्कि अकल से काम लेने का हैं। अगर हम लोग ऊपर गये तो इसमें खतरा बहोत हैं, क्योंकि ऊपर कम से कम ७० दुश्मन हैं और हम सिर्फ २२ हैं ईधर। माना कि वो सतर्क नहीं हैं, पार्टी कर रहे हैं फिर भी हम इतने सारों को एक साथ मार नहीं सकते। इसमें अगर उन्होंने सामने से फायरिंग शुरू कर दी तो हम सभी मारे जाएंगे क्योंकि उनकी तादाद हमसे तीन गुना ज्यादा हैं। सही निर्णय ये ही हैं की हम सब अपनी छाँवनी में वापिस लौट जाये।" इतना सुनते ही सूबेदार वीरप्रताप, सूबेदार करण सक्सेना और लांसनायक अभय सक्सेना सभी मेजर विक्रम के नजदीक आये। लांसनायक अभय ने बोला, "मेजर साब, आप झिद मत करो, ब्रिगेडियर साब की बात मान जाओ प्लीज़ ... अगर हम पहाड़ी के ऊपर गये तो हम सब मारे जायेंगे...और मैं जवानी में मरना नहीं चाहता।जैसे सब को मौत से डर लगता हैं, वैसे मुझे भी डर लगता हैं... चलो, नीचे चलो।"
अब विक्रम से रहा नहीं गया। उसने अभय की कमीज को गिरेबान से पकड़ के उसे ऊपर हवा में उठा लिया और ज़ोर से चिल्लाया, "क्या बोला रे तू? मरने से डरता हैं तू? कायर... फिर तू फ़ौज में क्यों भर्ती हुवा, साले?? अगर इतना घबराता हैं मौत से, तो क्या सोच के फ़ौज में
दाखिल हुवा था तू??" इतना बोल के उसने अभय को वापिस नीचे ज़मीन पे रख दिया और अब वो ब्रिगेडियर की तरफ एकाएक पलटा। "सुनो ब्रिगेडियर साहब," वो ज़ोर से चिल्ला के बोलने लगा, "दूसरों के बारे में मालूम नहीं लेकिन मैं तो फ़ौज में मरने के लिये ही आया हूँ... जिस दिन से फ़ौज में भर्ती हुवा हूँ, मैं उस मौके का इंतजार कर रहा हूँ जब इस वतन की खातिर मैं अपने आप को क़ुर्बान कर दूँ... साला इतना सुनेहरा मौका मैं कैसे जाने दे सकता हूँ देश की खातिर अपनी जान दे देने का?? ये मिटटी मुझे पुकार पुकार कर बोल रही हैं इस वख्त कि आजा तू अपनी माँ की गोद में समा जा... हो सके तो सारे दुश्मनों को, उन हराम के पिल्लों को तु ख़तम कर दे...और अगर नहीं हुवा, तो मैं तेरा इंतजार कर रही हूँ बेटे, मिल जा मेरे में, समा जा मुझ में तु, मेरे बेटे..." इतना बोलना था की उसकी आँखों में से आंसु टपकने लगे। पर अभी भी वो मुस्कुरा रहा था। वो आंसु किसी गम और मजबूरी के नहीं थे। वो उस खुशी के आंसु थे कि आज उसके हाथ एक मौका आया हुवा था दुश्मनों के रक्त से अपने हाथों को लाल करने का। वो फिरसे आगे बोला, "साहब, मैं साला थोड़ा senti हो गया था अभी। पर अब मैं दूसरे तरीके से समज़ाता हूँ आपको, सुनिये। Sir, even strategically we are at an advantage right now. युद्ध-नीति के दृष्टिकोण से भी हम इस वख्त फायदे की स्थिति में हैं, क्योंकि दुश्मन को बिल्कुल मालूम नहीं के हम लोग हमला करने वाले हैं और सर अगर हमने बम फेंके उन पर तो भी उनका सफाया हो जायेगा, फेस टू फेस मशीन गन से लड़ने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।" ब्रिगेडियर को अब बात समज में आ गयी। कैसे भी कर के मेजर उनको ये समझाने में कामयाब रहा था की धावा बोलने में ही फायदा हैं।
ब्रिगेडियर ज़ोर से बोला, "decision changed.. निर्णय बदल दिया गया हैं साथियों...अब हम आज ही ऊपर चोटी तक आहिस्ता आहिस्ता पहुंचेंगे और फिर हमला कर देंगे उन पर.." फिर वो आगे और ज़ोर से बोला, "हमारे पास अभी सुनेहरा मौका हैं जवानों, सारे के सारे दुश्मनों को ख़तम कर दो... चाहे वो पचास हो या सौ.. मार डालो सभी कोओओओ.... भारत माता की जय..." - ब्रिगेडियर ने सबका होंसला एकदम बढ़ाने की कोशिष की। कुछ सौच में थे पर फिर भी सभी २२ जवान पलटे और वापिस पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया। एकाद दो को छोड़के सब के होंसले बुलंद नज़र आ रहे थे।
करीब ६ से ७ मिनट तक वो आहिस्ता आहिस्ता चढ़ते रहे। आहिस्ता इसलिए क्योंक़ि ऊपर अगर आमने सामने युद्ध छेड़ जाये तब सभी ताकत से हमला कर सके और किसी की सांस फूली हुई ना हो। अब वो पहाड़ी की चोटी के एकदम नजदीक पहुँच गए थे, चोटी से लगभग १० मीटर नीचे तक। ऊपर फ़ास्ट म्यूजिक में किसी डिस्को गाने के बजने की आवाज़ आ रही थी और काफी शोर-शराबा हो रहा था। दुश्मनों को बिलकुल ही अंदाज़ा नहीं था कि वो सब कितने खतरे में पड़ने वाले हैं।
ब्रिगेडियर ने सूबेदार अर्जुनसिंह से कहा की वो फ़टाफ़ट ऊपर जाये और ये पता कर के वापिस नीचे आये की कुल मिला के ऊपर कितने दुश्मन मौजूद हैं। अर्जुन ऊपर गया और मुआयना कर के नीचे आ गया। "बड़े साब, ऊपर कमसे कम 80 लोग हैं, सब को मिला के...." - उसने ब्रिगेडियर को माहितगार किया।
ब्रिगेडियर ने युद्ध-नीति को अंजाम देते हुए कहा,"हम में से कोई तीन फौजी अभी ऊपर जायेंगे। तीनों के पास तीन तीन highly explosive devices (बम) होंगे। मेरे हिसाब से नौ बम में तो इन सभी का खात्मा हो जायेगा। हाँ तो सूबेदार जतिन शर्मा, लांस नायक सुरेश और सूबेदार हरीश तुम तीनों चार से पांच बम ले लो अपनी जेब में और ऊपर जा के फेंकों दुश्मनों पर, जाओ.... "
इतना सुनते ही जतिन, सुरेश और हरीश हरेक ने पांच बम ले लिए और ऊपर हमला करने की और अग्रेसर हुवे। हरीश सब से आगे था। वो पूरी हिम्मत के साथ ऊपर चढ़ रहा था, मानो वो अकेला की सभी को भारी पड़ेगा। उसके पीछे सुरेश था जो भी तेजी से ऊपर चढ़ रहा था। लेकिन जतिन ऐसे जा रहा था जैसे उसका मन ना बोल रहा हो और उसे जबरदस्ती ऊपर भेजा जा रहा हो। वो बारी बारे पीछे देख रहा था। ये देख कर मेजर विक्रम बोला,"ब्रिगेडियर साब, इसे हटाइये, ये दरअसल जाना नहीं चाहता हैं। मैं जाता हूँ ना इसके बदले में।"
ब्रिगेडियर ने जवाब में कहा,"नहीं विक्रम, तुम्हारी उस वख्त जरुरत पड़ेगी जब लड़ाई में कठिनाई हो। तुम एक अनुभवी और हुशियार जवान हो। अगर ऐसे हालत पैदा हुवे तो मैं तुम्हे खुद ही भेज दूंगा, लेकिन अंत में।" ब्रिगेडियर की ये बात विक्रम को हज़म नहीं हुई। "अंत में?"- उसने अपने आप से पूछा। "अंत में कब? जब हमारे सारे सैनिक शहीद हो चुके हो तब?" फिर भी वो चुप रहा क्यों की उसे लगा की ब्रिगेडियर उसका सीनियर हैं और उसके पास शायद कोई बेहतर स्ट्रेटेजी (युद्ध-नीति) होगी।
अब मामला ये था की हरीश और सुरेश काफी ऊपर चढ़ चुके थे और जतिन उन दोनों से थोड़ा पीछे रह गया था। मेजर विक्रम को लगने लगा की एक साथ धावा बोल देने का जो हुकम दिया गया था वो शायद कामयाब नहीं होने वाला। ब्रिगेडियर सहित बाकी के फ़ौजी कम चिंतिंत लग रहे थे। वो वास्तविकता से थोड़ा दूर अपने खयालो में थे जब की मेजर को आने वाली मुश्किल घडी का अंदाजा आने लगा था।
हरीश और सुरेश अब पहाड़ी की चोटी से एकदम पास थे। उन्होंने देखा तो दुश्मन सैनिक पुरे मस्ती में झूम रहे थे। जोरों से संगीत बज रहा था और काफी सारे नांच रहे थे। पूरा माहौल ऐसे था जैसे कोई जश्न मनाया जा रहा हो, किसी बात को लेकर। हरीश और सुरेश ने जतिन के ऊपर तक पहुँच जाने तक का इंतजार किया। कुछ ही क्षण में जतिन भी आ गया। यहाँ पे लांस नायक सुरेश सब से सीनियर था। उसने देखा की ज्यादार सैनिक जो थे वो पहाड़ी के बीच वाली जगह जो थी वहा पे जमा हो गए थे। उन्होंने एक वर्तुल बनाया हुवा था और उसके गोल गोल घूम के हाथ में शराब का प्याला लिए नांच रहे थे। गोलाकार के बीच में कोई एक फौजी बैठा हुवा था उनका, जिसका शायद जनम दिन था आज। उस गोल चक्कर में अगर दो बम फेंके जाये तो कम से कम 45 लोगो का काम तमाम हो सकता था। लेकिन उसने नज़र दौडाइ तो मालूम पड़ा की राइफल और अन्य हथियार भी पास ही में थे। "अगर थोड़ी से भी चूँक हुई हमसे तो मामला उनके 80 बनाम हमारे 23 का होगा और हम में से कोई नहीं बचेगा" - लांस नायक ने सोचा। "बहेतर यही होगा की इस वख्त हम उन में से ज्यादा से ज्यादा सैनिकों को ख़तम कर डाले और ये खयाल रखे कि वो अपने हथियार तक ना पहुँच पाये" - लांसनायक की सोच एकदम सही नतीजे पर पहुँच रही थी। उसने एक और बात का ध्यान हुवा की उस गोलाकार में जो घूम रहे थे उनके अलावा जो भी दुश्मन थे वो बिखरे हुवे थे, कही पे 5 तो कही पे 7-8 ऐसे ग्रुप में। कोई ग्रुप लेटा हुवा था तो कोई सफाई कर रहा था तो कोई एकल दुक्कल इधर उधर घूम रहा था। ये बिखरे हुवे लोग उनके लिए चिंता का विषय हो सकते थे अगर बहुत तेज़ी से उन्हें ख़त्म ना किया जाये तो। सुरेश ने आखिरकार प्लान ये बनाया की वो खुद पहले उस ज्यादा संख्या वाले, जश्न मना रहे फौजियों पे बमों की बरसा कर देगा। तुरंत ही उसके पीछे हरीश पहाड़ी के बायीं ओर जितने भी दिखे उन पर बम गिरायेगा और जतिन दायीं ओर जिनते भी बैठे हो उन पर हमला कर देगा। ये प्लान सुरेश ने बाकी दोनों भारतीय जवानों को बराबर से समजा दिया। उसने अपनी जेब से अपने भगवान का फोटो निकाला उसे चूमा, फिर अपनी फेमिली के फोटो को चूमा। फिर वो पलटा और बोला,"तो आप लोग तैयार हो?" हरीश और जतिन ने जवाब में हाँ बोला। सुरेश बोला,"ठीक हैं, उल्टी गिनती शुरू करता हूँ अब..... 5,4,3,2,1 attack...." इतना बोलते ही सुरेश ने अपने हाथ में रखे हुवे दो बमों को पहले जमीन पे जमा किया और फिर बाकी तीन बमों को उसने अपनी पतलून के जेबों से निकाले और उन्हें जमीन पे रखा। सभी 36 mm के hand thrown fragmentation grenade यानि की हाथों से फेंके जाने वाले ऐसे बम जो की फटने पर छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाये और तीक्ष्ण हथियार की तरह जिस किसी वस्तु के संपर्क में वो आये उसमे गेहराइ तक घुस जाये। तीनो के पास एक जैसे ही ग्रेनेड थे। सुरेश की तरह बाकी के दोनों ने भी अपने ग्रेनेडों को पहले जमीन पर इकठ्ठा किया। सुरेश ने इशारा किया तो हरीश बायीं ओर आगे बढ़ गया पर जतिन, जिसको की दायीं ओर जाने का आदेश मिला था वो वही पे स्थिर खड़ा रहा। अब जब की सुरेश जल्दी में था तो उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया की जतिन अभी भी वही खड़ा हैं। वो आगे की ओर खिसका, उस गोलाकार की तरफ जहाँ पे पार्टी चल रही थी। तभी पीछे से जतिन ने डर के मारे जोर से आवाज़ लगाई,"साब मैं मरना नहीं चाहता साब...मैं वापिस नीचे जा रहा हूँ..." उस मुर्ख की इस गलती पर सुरेश और हरीश दोनों को बहुत गुस्सा आया पर तब तक देर हो चुकी थी। बायीं ओर जितने भी नजदीक बैठे थे उन्होंने ये सब सूना और देख भी लिया। तुरंत उनमें से एक ने आवाझ लगा कर बाकी मौजूद सब को चौकन्ना कर दिया। सारे दुश्मन अपने अपने हथियार की ओर भागे। पुरे माहौल में अफरा तफरी मच गयी। सुरेश और हरीश को मालूम पड़ गया की एक सोचा समझा हुवा, अच्छा-सा प्लान चौपट हो गया हैं,उस कायर जतिन की वजह से। लेकिन ये व्यक्तिगत दोषारोपण का वख्त नहीं था। सुरेश सीधा उस गोलाकार की तरफ भागा। अभी भी वहा काफी दुश्मन थे। वो करीब 10 मीटर की दूरी पर था जब उसने अपने दाये हाथ से एक के बाद एक तीन ग्रेनेड उधर सब के बीच में फेंके। इसके पहले की वहा से सब हट जाये, ग्रेनेड फटे....भी सु म ......जबरदस्त आग की लहरें उठी और कई सैनिकों हवा में गेंदों की तरह उछले....मौत का भीषण नांच शुरू हो चूका था......
उतने में बायीं ओर के दुश्मन जो की अपने हथियार तक पहुँच चुके थे उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी। हरीश उनके बहुत नजदीक आ चूका था। उस पर गोलियों की बारिश हुई और फिर सुरेश पर। एक गोली सुरेश के माथे में जा लगी और वो वही पर गिर गया, शहीद हो गया। लेकिन उसके पहले वो अपना काम कर चूका था। उसने कम से कम 10 दुश्मनों को मार डाला था उस ग्रेनेड हमले में। उसका निष्प्राण शरीर जमीन पर जब पड़ा तब उसकी आँखे खुली रह गयी, ऊपर आसमान को ताकते हुवे,मानो वो अपने पूर्वजों को बोल रहा हो,"चलो मैं आ गया आपके पास!"
हरीश के बदन पे कम से कम 10 गोली लगी थी पर एक भी गोली उसके vital body parts, यानि की ह्रदय और मस्तिष्क पे नहीं लगी थी। इसलिए वो अभी जीवित था। लेकिन वो जमीन पर ऐसे लेट गया मानो मर गया हो। एक दुश्मन का सिपाही उसके नजदीक आया और उसे सीधा लेटाया। उसकी नब्ज़ चेक करने लगा की वो मरा हैं की नहीं पूरी तरह से। हरीश को मालूम पड़ गया की अगर वो ज्यादा देर लेटा रहा, तो उसकी पोल खुल जायेगी। इसलिए उसने अपनी जेब से 9 mm की पिस्तौल निकाली और फटाक से उसके एकदम नजदीक बैठे हुवे उस दुश्मन पर 2 गोली मार दी। वो वही पर ढेर हो गया। इतनी गोलियां लगने के पश्चात भी हरीश जबरदस्त बहादुरी दिखाते हुवे खड़ा हो गया और अपने बाये हाथ से एक के बाद एक दो 36 mm ग्रेनेड वहा पर उसके सामने खड़े दुश्मनों के ऊपर एकदम जल्दी से फेंके। ग्रेनेड भी जल्दी फटे और उसमें थोड़े बहुत दुश्मन मर गये। उतने में एक गोली आ कर हरीश के कान के पीछे लगी। उसके मस्तिष्क में छेद हो गया और वो शहीद हो गया। जब वो जमीन की ओर गिर रहा था तो उसने आवाज लगाई,"वन्दे मातरम"l मरने से पहले वो ये जोर से बोलना चाहता था। बोल तो दिया उसने पर उतना जोर से नहीं जितना जोर से वो बोलना चाहता था।
दो भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे अब तक पर सामने 16 दुश्मन मर गये थे। लेकिन ये वख्त गिनती करने का नहीं था,हमला करने का था। सभी लोगों की जान खतरे में थी, दुश्मनों की और भारतीय फौजियों की।
दुश्मनों की छांवनी में से उनका जो कमांडर था, उसने आवाज दे कर 5 सिपाही को हुक़ुम दिया की तीन दिखे थे उसमे से सिर्फ दो मरे हैं तीसरे को तुरंत ढूँढा जाये और ख़तम किया जाये।
तीसरा फौजी जो वहा कही नज़र नहीं आ रहा था, वो था,सूबेदार जतिन। उसकी कायरता और कमजोरी की वजह से पूरी स्ट्रेटेजी पूरा प्लान चौपट हो चूका था और भारत के दो फौजी मौत की गेहरी नींद सो चुके थे। इतना जैसे काफी न हो,जतिन ने एक और गलती कर दी। अगर वो वही कही झाड़ियों में छीप जाता तो शायद दुश्मनों को ये पता न चलता की उसके उपरांत अभी 21 जवान और खड़े हुवे हैं,पहाड़ी से थोड़ा नीचे की ओर,हमला करने को बेताब। पर वो वह छीपा नहीं ओर डरता हुवा वापिस नीचे उसी जगह जा पहुँचा जहा पर सारे भारतीय फ़ौजी मौजूद थे। इसका नतीजा ये हो सकता था कि दुश्मनों के sniffing dogs (लश्करी कुत्तों) को ये मालुम पड़ सकता था कि वो किस तरफ गया हुवा हैं। तुरंत पाकिस्तानी कमांडर असलम शेर खान ने इस का हुक्म दे दिया। 2 sniffer dogs को लाया गया और वो सूंघने के काम में मशरूफ हो गये।
इधर जतिन अपने साथियों के पास जा पहुंचा। वो मुस्कुरा रहा था, मानो पूरी जंग जीत के आया हो!! सूबेदार वीरप्रतापसिंघ बोला,"क्या हुवा जतिन?तू इतना हंस क्यों रहा हैं? सारे पाकिस्तानी मर गये क्या? और वो दोनों कहा पर हैं, सूबेदार सुरेश और सिपाही हरीश?"
पहले तो उस कायर को लगा की कोई जूठी कहानी सुना दूँ की हाँ सब पाकिस्तानी जो की पहाड़ी पर थे वो मर गये हैं। लेकिन उसकी आत्मा ने आवाज दी होगी कि ऐसा मत कर,इसलिए उसने सारी बातें सभी को सच सच बता दी - कैसे वो खुद एन वक्त पर डर के लड़ने से मुकर गया, जिसकी वजह से पूरा प्लान चौपट हो गया और उसी के कारण वो दो भारतीय जवान शहीद हो गये। इतना सूना कर वो चुप हो गया और बाकी के सैनिक उसके सामने घूरने लगे। कोई कुछ कहे या करे उसके पहले मेजर विक्रम एकदम से उसके ऊपर झपका,"हरामीईईईईई, कुत्तेऐऐऐऐऐ......." ये बोलते बोलते उसने जतिन को पीटना शुरू कर दिया,घूसों से,लातों से,एकदम जोर से..... अगर कुछ सैनिक बीच में न पड़ते तो शायद मेजर उसी जगह उसे मार देता। लेकिन सूबेदार करण, सिपाही वेंकट और सूबेदार मोहम्मद ने विक्रम को ऐसा करने से रोक लिया। फिर भी उसने जतिन के चेहरे को खून से भर दिया था। विक्रम और जतिन दोनों बुरी तरह से हांफ रहे थे। थोड़ी देर बाद विक्रम की सांस में सांस आयी। उसने ब्रिगेडिअर से बोल दिया,"इस कमीने कुत्ते कायर को मेरी नज़रो से दूर करो साहब वर्ना में उसके भेजे में छे की छे गोली उतार दूंगा।" सूबेदार वीरप्रताप बीच में टपका,"क्यों? ऐसा क्या किया हैं इसने की तुम उसे मार देना चाहते हो साहब। ज़रा उसकी पोजीशन को भी तो समजा करो। अभी 20 साल का बच्चा हैं, नादान हैं, थोड़ा सा डर गया और बीना बम फेंके नीचे चला आया पर उसने सच तो बोल दिया ना? झूठ तो नहीं बोला बेचारा? इतने भी निर्दयी मत बनो मेजर।"
मेजर ने थोड़े ठन्डे स्वर में जवाब दिया,"वीरप्रताप, मेरे दोस्त, मुझे इस बात का अफ़सोस कम हैं की ये कायर अपनी पीठ दिखाकर युद्ध के मैदान को छोड़ कर चला आया। पर मुझे इस बात का बेहद अफ़सोस हैं की ये उल्लु का पट्ठा ऊपर पहाडी की चोटी से निकल कर इस जगह आ पहुंचा हैं, जहा पर हम सब बैठे हुवे हैं...अब कभी भी दुश्मन के sniffer dogs इसको ढूंढते हुवे यहाँ तक आ पहुंचेंगे। ये बात भी सोची हैं आप में से किसी ने? और जैसे ही वो कुत्ते आयेंगे तो उसके पीछे पीछे आ रहे होंगे हमारे दुश्मन,वो भी बड़ी तादाद में...जैसा की इस मुर्ख ने बताया कमसे कम 50 से 60.... इसलिए अब तुरंत ही तैयार हो जाओ साथियों एक खतरनाक युद्ध खेलने के लिये,21 फ़ौजी हम और हमारे से तीन गुना 60 लोग वो।"
इतना विक्रम का बोलना था और सिपाही जतिन शर्मा का होश ठिकाने पर आ गया। उसको एक गहरा झटका लगा की उसकी कायरता की वजह से क्या क्या हो गया और आगे भी क्या खतरा मंडरा रहा हैं। पहले तो वो रोने लगा पर फिर उसके दिमाग में एक तरकीब सूजी। उसने तुरंत ब्रिगेडियर शर्मा और मेजर विक्रम को सम्बोधित करते हुवे कहा,"साब लोग, मैंने को गलती की हैं, उसकी सजा तुम लोगों को मैं नहीं भुगतने दूंगा...वो sniffer dogs मुझे ढूंढते हुवे यहाँ पहुंचे उसके पहले मैं खुद वहा पर जाता हूँ और जान बुझ कर उनका बंदी बन जाता हूँ... अगर उन्होंने मुझे इस दौरान मार भी दिया तो कोई गम नहीं हैं मुझे पर अगर ज़िंदा रखा तो बताऊंगा की हम सिर्फ तीन सिपाही थे जो ऊपर तक आये थे पहाड़ी की चोटी तक, इन पाकिस्तानियों को मारने का प्लान बना के। हमारे साथ दूसरा और कोई फ़ौजी नहीं हैं।"
"अबे उल्लू के पट्ठे, तूजे क्या लगता हैं की तू वहा पे सरेंडर कर देगा तो वो लोग तुजे पूछेंगे नहीं की तू क्यों सामने से सरेंडर कर रहा हैं? अगर सरेंडर की वजह पूछेंगे तो क्या बतायेगा तू?", सिपाही करण बीच में बोल पड़ा।
"वो तुम मेरे पर छोड़ दो... मुझे एक्टिंग अच्छी आती हैं, कैसे भी कर के उन्हें ये मान ने पर मजबूर कर दूंगा की हम तीन ही थे जो ऊपर तक चढ़े थे...और इसका नतीजा ये होगा की अगर जीवित रहा तो बाकी पूरा जीवन मैं एक युद्ध-कैदी की तरह बिताऊंगा या फिर वो लोग मुझे तुरंत मार देंगे... लेकिन दोनों ही सूरतों में मुझे गर्व होगा की देश के लिये कुछ तो कर पाया हूँ...",जतिन शर्मा इतना बोल के वापिस ऊपर की और जाने लगा। ब्रिगेडियर ने उसे रोकना चाहा ये कह कर की उसके इस कदम में बहुत खतरा हैं लेकिन उसने उनकी नहीं मानी। वो एकदम तेज़ कदमों से भागते हुवे फिर से पहाड़ी की चोटी की ओर जाने लगा।
करीब 2 मिनिट गुज़रे होंगे की उसको सामने से बड़े से शिकारी कुत्तों के भोंकने की आवाज आने लगी। वो समज गया की वो पाकिस्तानी sniffer dogs ही थे। वो वही पर बैठ गया और आगे क्या नाटक करना हैं उसके बारे में सोचने लगा। उसने सब सोच ही लिया होगा की एकदम तेजी से करीब 20 मीटर की दूरी पर वो कुत्ते और उसके साथ दो दुश्मन के सैनिक उसके सामने आ गए। उसमे से एक ने उस पर निशाना लगाया और गोली चलाने वाला ही था की जतिन ने अपने दोनों हाथ ऊपर आकाश की ओर उठा दिया, सरेंडर की मुद्रा में आ गया वो। फिर भी उस पाकिस्तानी ने एक गोली चला दी। जतिन बड़ी मुस्तैदी से जुक गया और गोली उसके सर के ऊपर से गुज़र गयी। वो फिर उठा, हाथ ऊपर किये और जोर से बोला,"जनाब, मैं सरेंडर करना चाहता हूँ, गोली मत चलाना प्लीज़।"
पाकिस्तानी सैनिक सरफ़राज़ एहमद को अब जतिन के ऊपर रहेम आ गया। उसने एक हाथ से दोंनो कुत्तों को काबू में किया और उसके जोड़ीदार को आवाज़ दी,"अशफ़ाक़, तुम जाओ और पकड़ लो इस सुंवर के बच्चे को...अगर हम उसके ज्यादा नजदीक गये तो ये कुत्ते उसे ज़िंदा ही फाड़ के खा जायेगे।" अपने सीनियर की बात अशफ़ाक़ ने मानी और वो जतिन को अरेस्ट करने के लिए आगे आया। जतिन के हाथ अभी भी हवा में थे। अशफ़ाक़ को थोड़ी आशंका पैदा हुई की शायद ये हिन्दुस्तानी अभी कोई चाल चलेगा और हमला कर देगा। पर जतिन ने ऐसा कुछ नहीं किया। चुपचाप वो सरेंडर हो गया। उसके दोनों हाथों में हथकड़ियाँ डाल कर वो पाकिस्तानी उसे अपने साथ ले गये।
पाकिस्तानी छांवनी में जैसे वो तीनों पहुंचे,वहा पे सारे दुश्मन के फौजी दंग रेह गये। उन्होंने ये अंदाजा लगा रखा था कि या तो एक हिंदुस्तानी की लाश आयेगी या फिर कुछ नहीं मिलेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुवा इधर।एक हिंदुस्तानी ज़िंदा चला आ रहा था उनकी तरफ।
कमांडर असलम शेरखान के पास उसे लाने से पहले उसे पानी पिलाया गया और हथकड़ियों को निकाल कर अब बड़ी बड़ी रस्सियों से उसके दोनों हाथ बाँध दिये गये। फिर उसे असलम शेर खान के पास पेश किया गया। पाकिस्तानी कमांडर दिखने में ही बड़ा ज़ालिम लग रहा था। बड़ी बड़ी मुछे उसके होठों के ऊपर से गुज़र कर उसके दोनों गालों को ढक चुकी थी। उसकी आँखों से निर्दयता और क्रूरता साफ़ छलक रही थी। ऐसा लग रहा था मानो ज़माने भर के पाप कर के, कितने लोगों को बेरहमी से कतल कर के वो इस मकाम तक पहुंचा हैं। उसने एकदम कातिल निगाहों से जतिन की ओर देखा, ये सोच कर की ये बच्चा उस से डर कर अभी सब कुछ उगल देगा। फिर वो बोला,"देख बच्चे,सब सच बता दे के तूने सरेंडर करने की क्यों सोची। अगर तू सच गोला तो शायद हम तुजे बक्श दे। लेकिन अगर इस पठान को लगा की तू जुठ बोल रहा हैं और हमें उल्लू बना रहा हैं तो इधर इसी वख्त तेरा ये सर कलम कर दूंगा।"
जतिन बिलकुल डरा नहीं,उसने ठान जो ली थी अब ज़िंदगी में कभी न डरने की। उसने बड़े इत्मीनान से उस जंगली शेर की आँखों में आँखे डाली और थोड़ा मुस्कुराया। उसके इस बिन्दास्त और निडर वर्ताव से कमांडर भी चौंक गया। फिर जतिन बोला,"देखिये जनाब, मेरी बात बड़ी सीधी सी हैं। हम तीन लोग थे जो की इस पहाड़ी के ऊपर तक आये थे 36 mm के कुल 15 ग्रेनेड ले कर के। ये सोच कर के यहाँ आप लोग कुछ 40 ही होंगे पर इतनी सारे तादाद में देख कर मैं पहले डर गया और भाग निकला जब की वो दोनों अपनी बहादुरी दिखाने गये और मर गये। मैं अपनी जान की किम्मत बराबर समझता हूँ जनाब। क्यों में मरू उस देश के लिए जिसने आज तक मुझे कुछ नहीं दिया सिवाय के एक मामूली नौकरी के ? जब मैं जाड़ीयों में छीपा था अपनी जान बचा कर तब मुझे ये ख़याल आया की मैं दर असल आपके बहुत काम आ सकता हूँ और खुद भी कुछ दौलत पा सकता हूँ, अगर आपको दिलचस्पी हो इस बात में तो, जनाब?"
कमांडर ने एक गहरी सांस ली। कुछ देर के लिये सोचता रहा और फिर बोला,"हमम... आदमी काम के लगते हो... क्या नाम हैं तेरा??"
Comments