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Last chapter of my book "Matru Bhoomi"

दुश्मनों की छाँवनी  में कम से कम ८० जवान होने का अंदाज़ा ब्रिगेडियर ने लगाया। एक ऊंची और लंबी पहाड़ी क़े ऊपर वो सब चढ़ गए थे। ब्रिगेडियर जानता था कि अगर इस अंतिम लक्ष्य को पार कर लिया तो भारतीय दल की जीत निश्चित थी। मगर इस वख्त तो ये काम लोहे के चने चबाने जैसा बेहद मुश्किल लग रहा था। वह इसलिए क्योंकि फिलहाल भारतिय दल के केवल २२ सैनिक शेष बचे थे। शाम के चार बजे से लेकर अब तक लगातार, वे सब कार्यरत थे। २५ फौजियों को लेकर जब वो भारतिय छावनी से निकले थे, तब ये खयाल किसी को भी नहीं था कि अंतिम लक्ष्य तक जब वे पहुंचेंगे, तब तक ३ जवान शहीद हो चुके होंगे और बाकी के इतने थक चुके होंगे की उस पहाड़ी पर  चढ़ कर दुश्मनों को मार गिराने की शारीरिक ताकत और हिम्मत किसी में बची नहीं होंगी। लेकिन अब पीछे हटने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। क्योंकि अगर पीछे हट  कर वापिस अपनी छाँवनी में गए, तो ये जो दुश्मन के सैनिक एक साथ इकट्ठे हुवे थे उनको एक साथ मार गिराने का और पहाड़ी पे कब्ज़ा ज़माने का स्वर्णिम अवसर आगे जा के पता नहीं मिले न मिले।इसलिए अब ये "आर या पार की लड़ाई" हो चुकी थी। मार डालो या मर जाओ - बस